क़ुरआन की एक स्पष्ट गलती और अन्तर्विरोध
अगर मुहम्मद ग़लत था, तो उसका नुक्सान भुगतेगा कौन?
सूरह 34:50 में मुहम्मद को हुक़्म दिया गया है कि वह इस तरह कहे:-
“कहो कि अगर मैं गुमराही पर हूँ तो मेरी गुमराही का वबाल (नुक़सान) मुझ पर है, और अगर मैं हिदायत पर हूँ तो यह उस ‘वही’ (ईश्वरीय वाणी) की बदौलत है तो मेरा रब मेरी तरफ़ भेज रहा है।”
अगर कोई इस वचन के बारे में थोड़ी देर के लिए सोचेगा तो उस ग़लती को ज़रूर पकड़ेगा जो इस वचन में है। हम यहाँ इस बात पर बहस नहीं करेंगे कि मुहम्मद सही राह पर था या गुमराह था, क्योंकि इस वचन को तार्किक रूप से अगर देखेंगे तो यह हर तरह से ग़लत है।
ग़लती :-
अगर मुहम्मद ग़लत था, तो उस से कितनों को नुक़सान हुआ था और कितनों को भविष्य में नुक़सान होनेवाला है? नुक़सान किनको होगा?
1) उन लाखों मुसल्मानों को जो हर बात में मुहम्मद के अनुगामी हैं।
2) उन औरतों को जो सदियों से इस्लामी दबाव में दुःख का जीवन जी रही हैं।
3) उन ग़ैर मुसलमानों को जो इस्लाम से पीडित थे और जो इस दौरान मुसल्मानों के हाथों में अपनी जान खोगये।
विडंबना यह है कि अगर मुहम्मद एक सच्चा नबी था, तौ भी इन लोगों को नुक़सान भुगतना पड़ेगा।
चाहे मुहम्मद ग़ुमराह था या सही रास्ते पर था, कई अविश्वासियों के जीवन मुस्लिम हमलों में बर्बाद कर दिये गये हैं। इस वजह से सूरह 34:50 का बयान तार्किक रूप से ही झूठा नहीं लेकिन वास्तविक इतिहास में भी ग़लत है।
मुहम्मद के उपदेश से पैदा हुए सभी अत्याचारों को एक तरफ़ लगाकर देखेंगे, तो निश्चित रूप से इस आयत (वचन) का इरादा अनंत काल में नुक़सान उठाने के विषय में एक व्याख्या करने का है; अर्थात् परमेश्वर के संदेश की स्वीकृति या अस्वीकृति के विषय के आधार पर प्रलय के दिन लोगों को पुरस्कृत या दंडित करने के बारे में एक बयान करने का है।
इस धारणा के अनुसार कि मुहम्मद एक सच्चा नबी था, जो लोग मुसल्मानों के हाथों में, मौक़े पर तुरंत अपने संदेश को स्वीकार नहीं करने की वजह से अविश्वासियों के रूप में मारे गए थे, वे न केवल उनके जीवन को खो दिये किन्तु इस्लाम के संदेश को गहराई से अध्ययन करने के मौक़े भी खो दिये हैं। इस तरह, उन लोगों ने पृथ्वी पर उनके जीवन खो दिये हैं, और हमारे सच्चे परमेश्वर का संदेश की अस्वीकृति की वजह से वे अनन्त दंड भुगतेंगे। इस प्रकार, भले ही मुहम्मद सही था, कई अविश्वासियों को अनन्त काल का नुक़सान होगया। यद्यपि मुसलमानों का तर्क हो सकता है कि क़ुर्आन के विचार धारा में यह उचित है, पर यह निर्विवाद है कि इस्लाम के हिंसक स्वभाव की वजह से वे लौकिक और अनन्त काल का नुक़सान भुगत चुके हैं।
दूसरी तरफ़, अगर, बाइबल सच है और मुहम्मद एक झूठा नबी है, तो सनातन नुक़सान से पीड़ित लोगों की संख्या बेहद बढ़ेगी :-
1) अविश्वासियों (मूर्ति पूजक, नास्तिक.....) जो इस्लाम को अस्वीकृत करने पर मारे गए थे, अभी तक परमेश्वर का सच्चा संदेश सुनने का, समझने का और स्वीकार करने का मौक़ा खो दिये हैं।
2) लाखों और मुसलमानों ने जो मुहम्मद के संदेश के आधार पर यीशु का प्रामाणिक इंजील को अस्वीकृत कर चुके हैं, हमेशा के लिए नुक़सान उठायेंगे, क्योंकि पाप से मुक्ति के लिए परमेश्वर के द्वारा की पेशकश को अस्वीकृत कये हैं जो क्रूस पर यीशु की मृत्यु है।
इस प्रकार, सूरह 34:50 के निरा विरोध में, अगर मुहम्मद ग़लत था, तो लोग भारी संख्या में सांसारिक और अनन्त हानि भुगतेंगे।
इन तथ्यों पर विचार करने के बाद, कोई भी शक ना करने की गुंजाइश शायद नहीं हो सकती है कि सूरह 34:50 एक निष्पक्ष ग़लत बयान है। यह क़ुर्आन का एक साफ़ ग़लती है।
क्या परमेश्वर ग़लती करेगा? क्या परमेश्वर इस तरह का एक ग़लत वचन को प्रेरित करेगा?
यह वचन क़ुर्आन की मानव प्रकृति को साफ़ साफ़ बयान करता है। यह किताब क़ुर्आन स्पष्ट रूप से परमेश्वर की ओर से नहीं आयी थी, लेकिन खुद मुहम्मद से। और यह आसानी से समझाया जा सकता है कि क्यों मुहम्मद उसका प्रकटीकरण में इस तरह का एक बयान को जोड़ा था।
अंत में, इस खंड में, एक और महत्वपूर्ण टिप्पणी है। अगर हम देखेंगे कि मुहम्मद उनके साथ कैसा निपटा जो इस्लाम की तुलना में एक अलग संदेश प्रचार करते थे, या इस्लाम के विरोध में आवाज़ उठाई हो, तो हमें साफ़ पता चलता है कि मुहम्मद भी अपने इस बयानों पर खुद विश्वास नहीं किया करता था। विशेष रूप से, मुहम्मद का अनुदेश यह है:- इस्लाम को जो छोड़ देता है, उसे मार ड़ालो (जैसे सहीह अल बुख़ारी 4.26 में है)। ज़ाहिर है कि मुहम्मद ने स्वधर्म त्याग करने को, या सब के सामने इस्लाम के अलावा किसी अन्य विश्वास की बात करने को इस्लामी समुदाय के लिए एक गंभीर ख़तरा जाना और उस के लिए सख़्त से सख़्त सज़ा स्थापित कर दिया था। कहीं भी एक इस्लामी समाज में एक और धर्म के उपदेश के लिये ख़ुली अनुमति नहीं है। अगर जो लोग ऐसा करेंगे, केवल अपने स्वयं के नुक़सान के लिए ही भटक जाते हैं, तो ऐसी अनुमति क्यों नहीं दी गयी? शरीयत के कानून, और उन लोगों के प्रति मुसलमानों की प्रतिक्रिया जो मुसलमानों को एक और धर्म पर विश्वास करने के लिए आमंत्रित करते हैं, यह साबित करते हैं कि वे सूरह 34:50 पर विश्वास नहीं करते हैं।
विरोधाभास:-
जैसा ऊपर उल्लिखित है, सूरह 34:50 केवल एक तथ्यात्मक ग़लती ही नहीं है, बल्कि क़ुर्आन का एक आंतरिक विरोधाभास भी है।
हालांकि यह बयान "अगर मैं गुमराही पर हूँ तो मेरी गुमराही का वबाल (नुक़सान) मुझ पर है" काल्पनिक है (अर्थात, यहाँ धारणा यह है कि मुहम्मद भटका नहीं है, लेकिन सही रास्ते पर है), यह कुर्आन के बहुत सारे आयतों (वचनों) को स्पष्ट रूप से बड़े तनाव में खड़ा कर देगा, क्योंकि विश्वासियों को चाहिए कि वे हर बात पर मुहम्मद का पालन करें। कुछ उदाहरण:-
कहो, अल्लाह की इताअत (आज्ञापालन) करो और रसूल की। फिर अगर वे मुंह मोड़ें तो अल्लाह हक़ का इंकार करने वालों को दोस्त नहीं रखता। सूरह 3:32
और अल्लाह और रसूल की इताअत (आज्ञापालन) करो ताकि तुम पर रहम किया जाए। सूरह 3:132
ये अल्लाह की ठहरायी हुई हदें हैं। और जो शख़्स अल्लाह और उसके रसूल की इताअत (आज्ञापालन) करेगा अल्लाह उसे ऐसे बाग़ों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, उन में वे हमेशा रहेंगे और यही बड़ी कामयाबी है। सूरह 4:13
वे तुमसे अनफ़ाल (लूट का माल) के बारे में पूछ्ते हैं। कहो कि अनफ़ाल (लूट का माल) अल्लाह और उसके रसूल के हैं। पस तुम लोग अल्लाह से डरो और अपने आपस के तअल्लुक़ात (संबंधों) की इस्लाह (सुधार) करो और अल्लाह और उसके रसूल की इताअत (आज्ञापालन) करो, अगर तुम ईमान रखते हो। सूरह 8:1
किसी मोमिन मर्द या किसी मोमिन औरत के लिए गुंजाइश नहीं है कि जब अल्लाह और उसका रसूल किसी मामले का फ़ैसला कर दें तो फिर उनके लिए उसमें इख़्तियार बाक़ी रहे। और जो शख़्स अल्लाह और उसके रसूल की नाफ़र्मानी करेगा तो वह सरीह गुमराही में पड़ गया। सूरह 33:36
ऐ ईमान वालो, अल्लाह की इताअत (आज्ञापालन) करो और रसूल की इताअत (आज्ञापालन) करो और अपने आमाल को बर्बाद न करो। सूरह 47:33
न अंधे पर कोई गुनाह है और न लंगड़े पर कोई गुनाह है और न बीमार पर कोई गुनाह है। और जो शख़्स अल्लाह और उसके रसूल की इताअत (आज्ञापालन) करेगा उसे अल्लाह ऐसे बाग़ों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। और जो शख़्स रूगर्दानी करेगा (वापस बदल जायेगा) उसे वह दर्दनाक अज़ाब देगा। सूरह 48:17
जिसने रसूल की इताअत (आज्ञापालन) की उसने अल्लाह की इताअत (आज्ञापालन) की। सूरह 4:80
और नमाज़ क़ायम करो और ज़कात अदा करो और रसूल की इताअत (आज्ञापालन) करो ताकि तुम पर (शायद) रहम किया जाए। सूरह 24:56
जो लोग तुमसे बैअत (प्रतिज्ञा) करते हैं वे दरहक़ीक़त अल्लाह से बैअत करते हैं। अल्लाह की हाथ उनके हाथों के ऊपर है। फिर जो शख़्स उस अहद (वचन) को पूरा करेगा जो उसने अल्लाह से किया है तो अल्लाह उसे बड़ा अज्र अता फ़रमायेगा। सूरह 48:10
जो कुछ अल्लाह अपने रसूल को बस्तियों वालों की तरफ़ से लौटाए तो वह अल्लाह के लिये और रसूल के लिए है और रिश्तेदारों और यतीमों (अनाथों) और मिस्कीनों (असहाय जनों) और मुसाफ़िरों के लिए है। ताकि वह तुम्हारे माल्दारों ही के दर्मियान गर्दिश न करता रहे। और रसूल तुम्हें जो कुछ दे वह ले लो और वह जिस चीज़ से तुम्हें रोके उससे रुक जाओ और अल्लाह से डरो, अल्लाह सख़्त सज़ा देने वाला है। सूरह59:7
और इस तरह के और भी अधिक वचन हैं - उदाहरण के लिए - सूरह 4:59, 69; 5:92; 8:20, 24, 46; 9:71; 24:51-52, 54; 33:33, 71; 49:14; 58:13; 64:12, इत्यादि।
मुहम्मद का अनुसरण करना कुर्आन का एक स्पष्ट और अनिवार्य आदेश है (चाहे वे कुर्आन के वचन हों या मुहम्मद की ख़ुद से कही हुई बते हों. देखें सूरह 57:9 24:45), और मुहम्मद जो कुछ भी करेगा या कहेगा उसे एक बडा मानक बनाया गया है।
तुम्हारा साथी न भटका है और न गुमराह हुआ है। और वह अपने जी से नहीं बोलता। यह एक ‘वही’ (ईश्वरीय वणी) है जो उस पर भेजी जाती है। उसे ज़बर्दस्त क़ुव्वत वाले ने तालीम (शिक्षा) दी है.....। सूरह 53:2-5
और बेशक तुम एक आला अख़्लाक़ (उच्च चरित्र-आचरण) पर हो। सूरह 68:4
तुम्हारे लिए अल्लाह के रसूल में बेहतरीन नमूना था, उस शख़्स के लिए जो अल्लाह का और आख़िरत के दिन का उम्मीदवार हो और कसरत से अल्लाह को याद करे (अल्लाह को ज़्यादा याद करे)। सूरह 33:21
इस तरह के वचनों के आधार पर, मुहम्मद को परमेश्वर से समर्थित आदर्श माना जाता है। और ज़िंदगी की हर बात में, हर विशय पर उसका पीछा किया जाता है। इसलिए, यह दावा करने के लिए मुश्किल है, कि अगर वह भटक गया है, तो, जो हर चीज में उसका पालन करेंगे (सूरह 34:50), उनको कोई नुकसान नहीं होगा।
जैसे कि ऊपर कहा गया है, ये वचन सूरह 34:50 के लिए एक स्पष्ट विरोधाभास नहीं हैं। लेकिन जब हम निम्नलिखित वचनों को इस समीकरण में जोड़ेंगे तो एक स्पष्ट विरोधाभास पैदा होता है।
और मुंकिर लोग (अविश्वासियों) ईमान वालों (विश्वासियों) से कहते हैं कि तुम हमारे रास्ते पर चलो और हम तुम्हारे गुनाहों को उठा लेंगे। और वे उनके गुनाहों में से कुछ भी उठाने वाले नहीं हैं. बेशक वे झूठे हैं। सूरह 29:12
ताकि वे क़ियामत के दिन अपने बोझ भी पूरे उठाएं और लोगों के बोझ में से भी जिन्हें वे बग़ैर किसी इल्म के गुमराह कर रहे हैं। याद रखो बहुत बुरा है वह बोझ जिसे वे उठा रहे हैं। सूरह 16:25
ये वचन यह स्पष्ट करते हैं कि "जो लोग तुम्हे भटकाते हैं, उन का पीछा करना" अपनी खुद की जिम्मेदारी से तुम्हे दोषमुक्त नहीं करता है। क़ियामत का दिन तुम्हारे भटक जाने का सज़ा (बोझ) भुगतना उन नेताओं से नहीं होगा. कोई भी खुद को इस बहाने से पूरी तरह से सक्षम नहीं कर सकेगा कि "मैं तो केवल इस या उस झूठे भविष्यद्वक्ता या शिक्षक का अनुसरण किया था।" सूरह 16:25 यह इंगित करता है कि उस बोझ का कुछ हिस्सा उन पर भी डाला जायेगा जो उन्हें गुमराह किया था। लेकिन यह भी पता चलता है कि उस सज़ा का शेष भाग उस व्यक्ती को ही भुगतना होगा जो अपराध किया था और परमेश्वर की बात नहीं मानी। इस प्रकार, जो भटक नेतृत्व करते हैं अपने अनुयायियों को परमेश्वर की सज़ा और अनन्त हानि भुगतने का कारण बनेंगे।
इसलिए, सूरह 34:50 ("अगर मैं गुमराही पर हूँ तो मेरी गुमराही का वबाल (नुक़सान) मुझ पर है"), कई और वचनों के साथ जो विश्वासियों को मुहम्मद का पालन करने के लिए आदेश देते हैं, दृढ़ता से सूरह 16:25 और 29:12 का खण्डन करता है।
कई अतिरिक्त वचन भी हैं जो कहते हैं कि जो लोग दूसरों का अनुसरण करेंगे जो भटक चुके हैं (संदर्भ आमतौर पर पूर्वजों का है), माफ़ी नहीं पायेंगे क्योंकि वे केवल शिकार होगए हैं, लेकिन अल्लाह उन्हें झूठ का पीछा करने के लिए सज़ा देगा।
और जब उनसे कहा जाता है कि अल्लाह ने जो कुछ उतारा है उसकी तरफ़ आओ और रसूल की तरफ़ आओ तो वे कहते हैं कि हमारे लिए वही काफ़ी है जिस पर हमने अपने बड़ों को पाया है। क्या अगरचे (हालांकि) उनके बड़े न कुछ जानते हों और न हिदायत पर हों। सूरह 5:104
हूद की क़ौम ने कहा, क्या तुम हमारे पास इसलिये आए हो कि हम तनहा (सिर्फ़) अल्लाह की इबादत करें और उन्हें छोड़ दें जिनकी इबादत हमारे बाप दादा करते आए हैं। पस तुम जिस अज़ाब की धमकी हमें देते हो उसे ले आओ अगर तुम सच्चे हो। हूद ने कहा तुम पर हमारे रब की तरफ़ से नापाकी और ग़ुस्सा वाक़ेअ हो चुका है। क्या तुम मुझसे उन नामों पर झगड़ते हो जो तुमने और तुम्हारे बाप दादा ने रख लिए हैं। जिनकी ख़ुदा ने कोई सनद (प्रमाण) नहीं उतारी। पस इंतज़ार करो, मैं भी तुम्हारे साथ इंतज़ार करने वालों में हूँ। सूरह 7:70-71
और जब वे कोई फ़ोइश (खुली बुराई) करते हैं तो कहते हैं कि हमने अपने बाप दादा को इसी तरह करते हुए पाया है और ख़ुदा ने हमें इसी का हुक़्म दिया है। कहो, अल्लाह कभी बुरे काम का हुक़्म नहीं देता। क्या तुम अल्लाह के ज़िम्मे वह बात लगाते हो जिसका तुम्हें कोई इल्म नहीं। सूरह 7:28
पस तू उन चीज़ों से शक में न रह जिनकी ये लोग इबादत कर रहे हैं। ये तो बस उसी तरह इबादत कर रहे हैं जिस तरह उनसे पहले उनके बाप दादा इबादत कर रहे थे। और हम उनका हिस्सा उन्हें पूरा पूरा देंगे बग़ैर किसी कमी के। सूरह 11:109
और हमने इससे पहले इब्राहीम (अब्राहम) को इसकी हिदायत अता की। और हम उसे ख़ूब जानते थे। जब उसने अपने बाप और अपनी क़ौम से कहा कि ये क्या मूर्तियाँ हैं जिन पर तुम जमे बैठे हो। उन्होंने कहा कि हमने अपने बाप दादा को इन्की इबादत करते हुए पाया है। इब्राहीम (अब्राहम) ने कहा कि बेशक तुम और तुम्हारे बाप दादा एक खुली गुमराही में मुब्तिला रहे। सूरह 21:51-54
उन्होंने अपने बाप दादा को गुमराही में पाया। फिर वे भी उन्हीं के क़दम बक़दम दौड़ते रहे। सूरह 37:69-70
यहाँ, ये लोग उस धर्म का अनुसरण कर रहे हैं जो उनके बाप दादा ने उन्हें सिखाया था, और कुछ लोगों ने शर्मनाक कृत्य भी कर रहे हैं जो उनके बाप दादा से करने के लिए सीख लिए थे; और उसी कारण से वे गुमराह हो गये हैं। फिर भी, उनके धर्म और पद्धतियों के लिए, अल्लाह अब भी उन्हें दोषी ठहराता है और उन्हें अभी भी अपनी पूरी सज़ा भुगतना पड़ेगा (सूरह 11:109)। यह दावा करना उनकी मदद नहीं करेगा कि यह अल्लाह है जो शायद अतीत में कोई नबी के माध्यम से उनको ये आदेश दिया है (सूरह 7:28), जो अल्लाह से संदेश लाने का दावा किया था, लेकिन जो वास्तव में एक झूठे नबी था।
जो लोग झूठे शिक्षकों या नबियों का पालन करेंगे, वे लोग कम से कम उनके भटक नेतृत्व के कारण से हानि और सज़ा भुगतेंगे। यह एक आम भावना सिद्धांत है, जिसका सूरह 34:50 के द्वारा खण्डन किया गया है, और यह कुरान में एक गंभीर गलती है और एक स्पष्ट विरोधाभास है।
अंग्रेज़ी मूल का लेखक - जोकेन कत्ज़
इस का मूल रचना अंग्रेज़ी में पढ़िए - A Plain Error and Contradiction in the Qur'an
(इस हिन्दी अनुवाद में हम ने मौलाना वहीदुद्दीन ख़ाँ साहब की हिन्दी क़ुर्आन अनुवाद की मदद लिया है)